कौशिक सरकार
दुधवा टाइगर रिजर्व से लगभग 13 किमी दूर पलिया, लखीमपुर खेरी में यह एक सर्द सुबह थी। ठंड के बावजूद, मेरे सहयोगी और मित्र, अनूप बोकासा और मैं पक्षियों को देखने जाने का विचार बना रहे थे। मार्च का महीना इस क्षेत्र में पक्षियों के लिए एक दिलचस्प समय है क्योंकि कई प्रवासी पक्षी अपनी सर्दियों की यात्रा के अंतिम चरण में होते हैं और सुदूर दक्षिण से वापस आने वाले पक्षी भी इस क्षेत्र को पार करते हैं। पर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वातावरण बाहर और भीतर दोनों ही जगह सर्द व उदास था। अनूप को खबर मिली थी कि उनके चाचा का निधन हो गया है। कुछ विचार-विमर्श के बाद, हमने जाने का मन बनाया। हमें लगा ऐसा करने से ना केवल अनूप अपने दुःख को थोड़ी देर कि लिए भूल पाएंगे बल्कि ताजी हवा भी उन्हें हलका महसूस करने में मदद करेगी। हमने उस होटल से एक बाइक उधार ली, जिसमें हम ठहरे हुए थे, और पक्षियों को देखने के लिए निकल गए।
हम शारदा नदी के किनारे घास के मैदानों की ओर बढ़े। यहीं पर एक पूर्व सहपाठी, संकर्षण ने हाल ही में एक उत्तरी लैपविंग (नॉर्दर्न लैपविंग) / टिटहरी देखी थी। उत्तरी लैपविंग भारत में सबसे दुर्लभ प्रवासी टिटहरियों में से एक है। आकर्षक शिखा वाला यह एक सुंदर पक्षी है जिसकी हरे रंग की पीठ तेज धूप में चमकदार दिखाई देती है। यह एक 'लाइफर’ अवसर था (जब आप पहली बार किसी पक्षी को देखते हैं तो पक्षी प्रेमियों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक शब्द)। हम जानते थे कि हमें फिर से आसानी से यह मौका नहीं मिलेगा।
रास्ता लगभग 15 किमी लंबा था, और आरक्षित वन क्षेत्र से होकर भी गुजरता था, जो कि हमने अनुमान लगाया था कि पक्षी देखने के लिए अच्छा होगा। लेकिन यहाँ बहुत ठंड थी - उत्तर भारतीय ग्रामीण इलाके अपने कोहरे और सवार के हाथों को ठण्ड से जमाने के लिए कुख्यात भी है।
हम हाथों को गर्म करने के लिए बार-बार रुकते रहे और इसी दौरान भारतीय नटचैट की एक जोड़ी और एक हिमालयन बज़र्ड को देखा। दिशाओं के लिए हम जिस ऐप का इस्तेमाल कर रहे थे, वह हमें सड़क की जगह कुछ तीखे मोड़ों वाली पगडंडियों के माध्यम से ले गया, जो मुश्किल से एक मीटर चौड़ी थी। हमें इस आवाजाही वाले जंगल के टुकड़े में भी कुछ ऐसे परिचित पक्षी देखने को मिले जिन्हें हम आमतौर पर शांत, घने जंगलो में देख पाते हैं जैसे की ग्रीन-बिल्ड मल्कोहा और ओरिएंटल पाइड हॉर्नबिल।इससे हमें शक हुआ कि क्या शिकारी जानवर भी आसपास होंगे? हम इस संकरी पगडंडी पर बड़ी बिल्ली या हाथियों का सामना नहीं करना चाहते थे!
जंगल के इस हिस्से से हम जैसे ही बाहर निकलने वाले थे, पगडंडी चौड़ी हो गई और हमने एक साइकिल सवार से नदी का रास्ता पूछा। हमने एक गांव में प्रवेश किया जिसके गन्ने के खेतों के चारों ओर कंटीले तार लगे हुए थे, जिनमें से कुछ की कटाई की जा रही थी जबकि अन्य लंबे खड़े थे। हमने सावधानी से कीचड़ भरे रास्ते पर चलना शुरू किया, भैंसों और गड्ढों से बचते हुए। इसी दौरान हमें पिपिट पक्षी की एक जोड़ी भी दिखाई दी जिनकी पहचान करने और तस्वीर लेने की कोशिश में लगभग 10 मिनट खर्च हुए (दुर्भाग्य से, वे मेरी ईबर्ड चेकलिस्ट पर केवल पिपिट एसपी के रूप में ही दर्ज हैं)।
चित्र 1: रास्ते में दिखे पक्षी; हिमालयन बज़र्ड (बाएं) और एक पिपिट प्रजाति (दाएं) (पैडीफ़ील्ड पिपिट सबसे अधिक संभावना)। फोटोग्राफर: अनूप प्रकाश बोकासा
नदी तट के करीब पर्यावास अधिक घास से ढका और झाड़ीदार हो गया। अंत में, रास्ता कई छोटी-छोटी पगडंडियों में बंट गया। लगभग 300 मीटर बाद, हम नदी के तट पर पहुँचे। हमारे पैरों के नीचे रेत और गाद थी और कुछ कैसुरिना जैसे पौधे इस हिस्से पर भरमार थे। मैंने वापस जाने के रास्ते में एक युवा सेमल के पेड़ को पहचाना और मार्गदर्शिका के रूप में याद कर लिया।
आखिरकार जिस तक पहुँचने के लिए हमने इतनी मेहनत की थी, वो हमारे सामने थी, विस्तृत शारदा नदी। एक सूखी हुई नदी जिसके बीच से पानी की एक संकरी धार बह रही थी। नदी तल के रेत के टीलों पर कुछ स्थानों पर छोटी-छोटी घासें उग आई थीं, जबकि अधिकांश जगह में कीचड़ भरे नाले बने हुए थे। दूसरे किनारे पर किशनपुर वन्यजीव अभयारण्य था, जहाँ इसकी वन सीमा नदी को छूती थी। किशनपुर वन्यजीव अभयारण्य भी दुधवा टाइगर रिजर्व का हिस्सा है, लेकिन दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की तुलना में यहाँ स्तनधारियों की संख्या बहुत अधिक है। माना जाता है कि शारदा नदी से इसकी निकटता शायद इसका कारण है।
अनूप ने अपने घर परिवार और दोस्तों से बात की और मैं आसपास ध्यानपूर्वक पक्षियों की खोज करने लगा। कभी-कभी, फील्डवर्क का काम जीवन की घटनाओं से विरामित होता है – दुःख या सुख - हमारी उपस्थिति के बिना घटनाएं घटती है, और हम यह तय करते है कि हम ऐसी परिस्थितियों का किस प्रकार सामना करें जब हम कोसो दूर है। हमें एक उथले पानी के विस्तार में कुछ जल-पक्षी दिखे जो खाने में व्यस्त थी। इसी दौरान, कुछ छोटे प्रेटिनकोल्स उड़ते हुए और नदी के उस पार एक जंगली सूअर दौड़ते हुए भी दिखा।
अभी तक कोई उत्तरी लैपविंग तो नहीं, लेकिन बहुत सारे सफेद, पीले और सिट्रीन वैगटेल पक्षी हमें दिखाई दिए। वैगटेल रंगीन पक्षियों का एक समूह है जो हर सर्दियों में भारत में प्रवास करते हैं और पूरे भारत के मैदानों और आर्द्रभूमियों पर निवास करते हैं।
चित्र 2: उथले पानी में कुछ वैडर (बाएं) और एक छोटा प्रिटिनकोल (दाएं) । फोटोग्राफर: अनूप प्रकाश बोकासा
जैसे ही हम नदी के किनारे से मुड़े, हमने ऐसा कुछ देखा जिसका ट्रैकर्स सभी जंगलों में पैनी नजर रखते हैं: बाघ के पंजो के निशान, वो भी बिलकुल ताजा। पंजा छोटा भी नहीं था और स्पष्ट रूप से एक बड़ी बिल्ली का था, शायद पिछली रात से या कुछ घंटों पहले।
"यहाँ, गाँव से लगभग 300-400 मीटर की दूरी पर, बहुत से आवरण वाले इस झाड़-झंखाड़ वाले इलाके में, एक बाघ घूम रहा था।"
हमने निशान आगे तक देखा और पाया कि बड़े बाघ के पंजो के साथ साथ छोटे पंजो के निशान भी थे। हमें आश्चर्य हुआ कि क्या यह उसका शावक है, लेकिन चूँकि वे विपरीत दिशा में चल रहे थे, यह एक फिशिंग कैट या कुछ और भी हो सकती थी। जब घास में निशान गायब हो गए, तो हम पीछे हट गए और वो सटीक स्थान पाया जहां से बाघ इस नदी के किनारे पर चढ़ गया था, क्योंकि उसके वजन से रेत में बड़े-बड़े गड्ढे बन गए थे। बाघ शायद किशनपुर से नदी पार करके इस तरफ आया था।
चित्र 3: नदी के किनारे बाघ के पंजो के निशान। फोटोग्राफर: कौशिक सरकार
एक बाघ के आसपास होने का एहसास रोमांचकारी था। अनूप के पास कुछ सुझाव थे कि अगर हम अचानक उसे देख लें तो क्या करें (क्योंकि संभावना है कि वह हमें पहले ही देख चुका होगा)। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दौड़ूं या कोई अचानक हरकत न करूं, लेकिन झाड़ियों से दूरी बनाए रखूं और अपने किनारों पर अच्छी नजर रखूं।
हम वापस बाइक कि ओर बढ़े। यह जाने का व़क्त था। अनुभव से रोमांचित, हमने चर्चा की कि कैसे यह झाड़ी और गन्ना शायद बाघों के लिए पूरी तरह से उपयुक्त हैं , इसलिए वो गाँवों के इतने करीब आसानी से आ जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि यह गन्ने के बाघों की भूमि है, जहाँगन्नों के बीच ही शावक पैदा होते हैं, और इन्हीं में पलते-बढ़ते हैं हैं। यह खेत उनके लिए हैबिटैट या निवास स्थान बन चुके हैं।
वापस रास्ते में, हम संकरे, कीचड़ भरे रास्ते पर थोड़ा संतुलन बनाने की कोशिश में लग गए, क्योंकि दूसरी तरफ से एक बैलगाड़ी आ रही थी। दोनों पक्ष संभवतः एक-दूसरे के रहते आराम से आगे नहीं बढ़ सकते थे, इसलिए मैं बाइक से उतर गया, जबकि अनूप ने बाइक को आगे बढ़ाया। उन्हें और जगह देने के लिए, मैं खेतों को घेरने वाली बाड़ पर झुक गया ... और चिल्लाया!
'जिस कंटीले तार पर मैं झुका हुआ था, वह कोई साधारण कंटीला तार नहीं था; वह बिजली का बाड़ था और मुझे बिजली का झटका लग गया था!' (Pull quote)
मैं आगे की ओर झुक गया, मेरी पीठ और घुटनों में तीव्र दर्द हो रहा था; मुझे विश्वास है कि मेरी बहुत सी तंत्रिकाएँ दर्द में थीं। और यहीं पर एक अजीबोगरीब घटना घटी। जब मैं झटके की प्रतिक्रिया में तड़प रहा था, आगे झुकने के उसी क्षण में, मैंने उस रास्ते के दूसरी तरफ कुछ देखा। बिलकुल काली पीठ और पूंछ वाला एक पक्षी, लगभग एक रॉबिन के आकार का, एक छोटे से पेड़ पर था, और उसकी मुद्रा, पूंछ और उसकी पीठ का एकरूपी रंग कुछ अजीब तरह से परिचित लग रहा था। मेरा दर्द अचानक आश्चर्य में बदल गया: क्या यह वास्तव में वो पक्षी है जो मैं सोच रहा हूँ? मैंने अनूप को यह पूछते सुना "क्या तुम ठीक हो?" और उनके अपेक्षा के बिलकुल विपरीत मैंने उत्तर दिया, "क्या वह जेरडोंस बुशचैट है?"
अब, इससे पहले कि आप आश्चर्य करें कि क्या झटके ने मेरे दिमाग को हिला दिया था, यहाँ यह कहना जरूरी है कि इस पक्षी का दिखाई देना क्यों महत्वपूर्ण है: जेरडोंस बुशचैट भारत में दुर्लभ पक्षियों में से एक है। यह उत्तर-पूर्व भारत के अलावा उत्तर प्रदेश के दुधवा-पीलीभीत तराई क्षेत्र में ही पाया जाता है और हमने इसे पहले कभी नहीं देखा था। मैंने अच्छी तरह से देखने के लिए जल्दी से अपनी दूरबीन उठाई, लेकिन शैतान पक्षी ने अपना चेहरा दिखाने से इनकार कर दिया और कुछ ही पलों में वह भी उड़ गया।
मुझे झटका लगने और अनूप से पूछने का पूरा प्रकरण कि क्या यह वास्तव में जेरडोंस बुशचैट था, मुश्किल से पांच से छह सेकंड के भीतर हुआ होगा। बैलगाड़ी वाली महिला निस्संदेह हमारे द्वारा किए गए हास्य दृश्य पर हंस रही थी। अनूप ने माना कि यह पक्षी काली पीठ वाले सामान्य संदिग्धों से अलग था। यहाँ मैं सचमुच "शॉक" में था क्योंकि हम इस क्षेत्र के लिए एक 'विद्युतकारी' खोज के इतने करीब थे। अभी तक जेरडोंस बुशचैट केवल पास के जिले पीलीभीत में दर्ज किया गया था। यह लखीमपुर जिले से दर्ज नहीं किया गया है जहां दुधवा टाइगर रिजर्व है।
अगर वह पक्षी एक बार हमारी ओर मुड़ा होता, तो उसके गले और बाजू पर एक नज़र से हम आश्वस्त हो जाते कि हमारा अनुमान सही है। हमें शायद ऐसा मौका दोबारा नहीं मिलने वाला था। यही हमारा फील्ड वर्क है: या तो जीवन भर का यादगार पल या पलक झपकते ही चूक जाना। कुछ मिनटों के बाद, हमने एक वैकल्पिक मार्ग चुना और अपने होटल वापस चले गए और दोपहर के बाकी समय में सो गए ताकि सभी मामलों में एक 'विद्युतकारी' सुबह से उभर सकें।
बक्से में अतिरिक्त जानकारी:
बॉक्स 1: कृषि क्षेत्रों में बाघों की उपस्थिति भारत के तराई क्षेत्रों में एक बड़ी बहस का विषय है। बाघों को गन्ने के खेतों में प्रजनन के लिए भी जाना जाता है, जो उन्हें मनुष्यों के साथ असुविधाजनक रूप से करीब लाते हैं और दोनों तरफ जीवन की हानि होती है।
बॉक्स 2: किसानों द्वारा अपने कृषि क्षेत्र से पशुओं को दूर रखने के लिए विद्युत बाड़ लगाना - जिसे स्थानीय भाषा में झटका तार कहा जाता हैं - सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली तकनीकों में से एक है। आम तौर पर 'सौर बाड़' के रूप में जाना जाता है, उन्हें केवल हल्का झटका देना चाहिए, जो जानवरों को दूर रखने के लिए काफी अच्छा है। दुर्भाग्य से, उच्च रखरखाव और निवेश इन बाड़ों को किसानों द्वारा चुनना मुश्किल बनाता है। खराब रखरखाव* जैसे सामान्य कंटीले तार का उपयोग, मुख्य बिजली लाइन से कनेक्शन और अनियंत्रित सक्रिय समय, अक्सर मानव और पशु जीवन के लिए जोखिम पैदा करते हैं।
*बिजली की बाड़ को वनस्पति से साफ रखना चाहिए। रबर इंसुलेटर को सही जगह पर रखने की जरूरत है। बाड़ के खंभे स्थिर होने चाहिए और तार ढीले नहीं होने चाहिए। यदि इन चीजों का रखरखाव नहीं किया जाता है, तो इसे आमतौर पर बिजली की बाड़ का खराब रखरखाव कहा जाता है।
अनुवादिका: अतुला गुप्ता